Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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गायत्री का हृदय पहले भी उदार था। अब वह और भी दानशीला हो गयी थी। उसके यहाँ अब नित्य सदाव्रत चलता था और जितने साधु-सन्त आ जायें सबको इच्छापूर्वक भोजन-वस्त्र दिया जाता था। वह देश की धार्मिक और पारमार्थिक संस्थाओं की भी यथासाध्य सहायक करती रहती थी। अब उसे सनातन धर्म से विशेष अनुराग हो गया। अतएव अब की सनातन धर्म-मंडल की वार्षिकोत्सव गोरखपुर में होना निश्चय किया गया तब सभासदों ने बहुमत से रानी गायत्री को सभापति नियुक्त किया। यह पहला अवसर था कि यह सम्मान एक विदुषी महिला को प्राप्त हुआ। गायत्री को रानी की पदवी मिलने से भी इतनी खुशी न हुई थी जितनी इस सम्मान पद से हुई। उसने ज्ञानशंकर को, जो सभा के मंत्री थे बुलाया और अपने गहनों का संदूक दे कर बोली, इसमें ५० हजार के गहने हैं। मैं इन्हें सनातन धर्मसभा को समर्पण करती हूँ

समाचार-पत्रों में यह खबर छप गयी। तैयारियाँ होने लगीं। मंत्री जी का यह हाल कि दिन को दिन और रात को रात न समझते। ऐसा विशाल सभा भवन कदाचित ही पहले कभी न बना हो। मेहमानों के आगत-स्वागत का ऐसा उत्तम प्रबन्ध कभी न किया गया था। उपदेशकों के लिए ऐसे बहुमूल्य उपहार न रखे गये थे और न जनता ने कभी सभा से इतना अनुराग ही प्रकट किया था। स्वयंसेवकों के दल के दल भड़कीली वर्दियाँ पहने चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। पंडाल के अहाते में सैकड़ों दूकानें सजी हुई नजर आती थीं। एक सरकस और दो नाटक समितियाँ बुलायी गयी थीं। सारे शहर में चहल-पहल देख पड़ती थी। बाजारों में भी विशेष सजावट और रौनक थी। सड़कों पर दोनों तरफ बन्दनवारें और पताकाएँ शोभायमान थीं।

जलसे के एक दिन पहले उपदेशकगण आने लगे। उनके लिए स्टेशन पर मोटरें खड़ी रहती थीं। इनमें कितने ही महानुभाव संन्यासी थे। वह तिलकधारी पंडितों को तुच्छ समझते थे और मोटर पर बैठने के लिए अग्रसर हो जाते थे। एक संन्यासी महात्मा, जो विद्यारत्न की पदवी से अलंकृत थे, मोटर न मिलने से इतने अप्रसन्न हुए कि बहुत आरजू-मिन्नत करने पर भी फिटन पर न बैठे। सभा भवन तक पैदल आये।

लेकिन जिस समारोह से सैयद ईजाद हुसेन का आगमन हुआ। वह और किसी को नसीब न हुआ। जिस समय वह पंडाल में पहुँचे, जलसा शुरू हो गया था और एक विद्वान पंडित जी विधवा-विवाह पर भाषण कर रहे थे। ऐसे निन्द्य विषय पर गम्भीरता से विचार करना अनुपयुक्त समझ कर वह इसकी खूब हँसी उड़ा रहे थे और यथोचित हास्य और व्यंग्य, धिक्कार और तिरस्कार से काम लेते थे।

‘‘सज्जनों, यह कोई कल्पित घटना नहीं मेरी आँखों देखी बात है। मेरे पड़ोस में एक बाबू साहब रहते हैं। एक दिन वह अपनी माता से विधवा-विवाह की प्रशंसा कर रहे थे। माताजी चुपचाप सुनती जाती थीं। जब बाबू साहब की वार्ता समाप्त हुई तो माता ने बड़े गम्भीर भाव से कहा, बेटा, मेरी एक विनती है, उसे मानो। क्यों मेरा भी किसी से पाणिग्रहण नहीं करा देते? देश भर की विधवाएँ सोहागिन हो जायँगी तो मुझसे क्योंकर रहा जायगा? श्रोताओं ने प्रसन्न होकर तालियाँ बजायीं, कहकहों से पंडाल गूँज उठा।’

इतने में सैयद ईजाद हुसेन ने पंडाल में प्रवेश किया। आगे-आगे चार लड़के कतार में थे, दो हिन्दू, दो मुसलमान। हिन्दू बालकों की धोतियाँ और कुरते पीले थे, मुसलमान बालकों के कुरते और पाजामे हरे। इनके पीछे चार लड़कियों की पंक्ति थी– दो हिन्दू और दो मुसलमान, उनके पहनावे में भी वही अन्तर था। सभों के हाथों में रंगीन झंडियाँ थीं, जिन पर उज्ज्वल अक्षरों में अंकित था– ‘इत्तहादी यतीम-खाना।’ इनके पीछे सैयद ईजाद हुसेन थे। गौर गर्ण, श्वेत केश, सिर पर हरा अमामा, काले कल्पाके का आबा, सुफेद तंजेब की अचकन, सलेमशाही जूते, सौम्य और प्रतिभा की प्रत्यक्ष मूर्ति थे। उनके हाथ में भी वैसी ही झंडी थी। उनके पीछे उनके सुपुत्र सैयद इर्शाद हुसेन थे– लम्बा कद, नाक पर सुनहरी ऐनक, अल्बर्ट फैसल की दाढ़ी तुर्की टोपी, नीची अचकन, सजीवता की प्रत्यक्ष मूर्ति मालूम होते थे। सबसे पीछे साजिन्दे थे। एक के हाथ में हारमोनियम था, दूसरे के हाथ में तबले, शेष दो आदमी करताल लिये हुए थे। इन सबों की वर्दी एक ही तरह की थी और उनकी टोपियों पर ‘अंजुमन इत्तहाद’ की मोहर लगी हुई थी। पंडाल में कई हजार आदमी जमा थे। सब-के-सब ‘इत्तहाद’ के प्रचारकों की ओर टकटकी बाँध कर देखने लगे। पंडित जी का रोचक व्याख्यान फीका पड़ गया। उन्होंने बहुत उछल-कूद की, अपनी सम्पूर्ण हास्य-शक्ति व्यय कर दी, अश्लील कवित्त सुनाये, एक भद्दी-सी गजल भी बेसुरे राग से गायी, पर रंग न जमा। समस्त श्रोतागण ‘इत्तहादियों’ पर आसक्त हो रहे थे। ईजाद हुसेन एक शान के साथ मंच पर जा पहुँचे। वहाँ कई संन्यासी, महात्मा, उपदेशक चाँदी की कुर्सियों पर बैठे हुए थे। सैयद साहब को सबने ईर्ष्यापूर्ण नेत्रों, से देखा और जगह से न हटे। केवल भक्त ज्ञानशंकर ही एक व्यक्ति थे जिन्होंने उनका सहर्ष स्वागत किया और मंच पर उनके लिए एक कुर्सी रखवा दी। लड़के और साजिन्दे मंच के नीचे बैठ गये। उपदेशकगण मन-ही-मन ऐसे कुढ़ रहे थे, मानो हंस समाज में कोई कौवा आ गया हो। दो-एक सहृदय महाशयों ने दबी जबान से फबतियाँ भी कसीं, पर ईजाद हुसेन के तेवर जरा भी मैले न हुए। वह इस अवहेलना के लिए तैयार थे। उनके चेहरे से वह शान्तिपूर्ण दृढ़ता झलक रही थी, जो कठिनाइयों की परवा नहीं करती और काँटों में भी राह निकाल लेती है।

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